Wednesday, September 11, 2013

"ईश्वर और भूतप्रेत" अद्भूत एवं अकल्पनीय

 "ईश्वर और भूतप्रेत" अद्भूत एवं अकल्पनीय 

                ईश्वर एवं भूत प्रेतो कि बाते भलेही रहस्य,दंतकथा या मात्र एक खयाली पुलाव माना जाता हो लेकिन सच ये भी है कि इन्हे मानने वाली बहुसंख्य आबादी भी इसी विश्व मे रहती है. एक समुदाय इनमे इन सब चीजों का घोर विरोध करने वाला भी है. “अंधश्रद्धा निर्मुलन समितीया” भारत मे है इसकी जानकारी मुझे भली भाती पता है लेकिन संभव है कि विश्व भर मे भी इनका एक बडा समुदाय वास करता है. मै स्वयं को इन दोनो समुदायो से भिन्न पाता हू. क्यूंकी जैसे मै “ईश्वर” इस संकल्पना मे विश्वास रखता हू जो सकारात्मक उर्जा के प्रतिक मे हम मानते है; तो स्वयं हि इसका दुसरा पहलू जो “नकारात्मक उर्जा” है,भला हम इसे कैसे नजरअंदाज कर सकते है??
                मानवी जीवन मे कई बार हमारे साथ कभी-कभी ऐसी रहस्यमई घटनाऐ घट जाती है तब ना चाहते हुये भी इन भूत-प्रेतो के अस्तित्व पर कोई प्रश्नचिन्ह लगाने का दुस्साहस करने कि हिम्मत नही होती. मेरे खुद के साथ भी ऐसा हि दो बार घटित हो चुका है. उन दोनो घटनाओं का उल्लेख करने से मै खुदको नही रोक पा रहा. आप भी इन्हे पढिये और अपनी अपनी सोच के मुताबिक इसका मतलब निकालीये. लेकिन इसका ऐ मतलब कतई ना निकाले कि अंधश्रधा को अपने इस लेख के माध्यम से मै कोई उर्जा पुरा रहा हू. जो मेरे साथ घटित हुआ वो घटनाऐ मात्र यहा आपके साथ साझा कर रहा हू.
घटना क्रमांक-१
                बात उन दिनो कि है जब मै करीब १४-१५ वर्ष कि आयु का रहा होउंगा. हमारे गाव से करीब ५ कि.मी. के दुरी पर घने जंगलो से घीरा एक पहाड है. हमारे पडदादाजी के जमाने से उस पहाडी के शीर्ष पर एक मंदिर है.
वाहापर “श्री.अल्पहृषी महाराज” नामके एक साधू(इनका इतिहास फिर किसी लेख मे साझा करूंगा) का मंदिर बना है. पहले वाहा पर चरण पादुका हुआ करती थी,जिनकि पूजा अर्चा कि जाती थी. लेकिन हमारे पिढी मे हि हमारे परिजनो ने ऐ निर्णय लिया कि महाराज कि एक प्रतीकात्मक मूर्ती बनाई जाये. मूर्ती बन गई प्राणप्रतिष्ठा कि विधी विधान से उसे स्थापित भी किया गया. साल मे मकर संक्रांत और दिवाली के बाद आनेवाली पूरणमासी अर्थात त्रिपुरारी पौर्णिमा को वाहा भक्तीभाव से एवं भव्य तरिकेसे पूजा अर्चा कि जाती है. स्थापना के लगभग दो वर्षो के बाद मंदिर के नियमित रखरखाव एवं पेंटिंग के लिये ऐसे हि त्रिपुरारी पौर्णिमा के लगभग ३ – ४ दिन पहले मेरे बाबुजी, काका, गांव के एक पुजारी और पेंटर पहाड कि ओर रवाना हुये. मै भी जिद करके इनके साथ हो लिया. हम लोगो ने पूजा अर्चना करने के साथ संपूर्ण दिन मंदिर मे अपना काम पुरा किया. लेकिन काम संपन्न करने मे हमे शाम हो गई. नवंबर का सर्दी का महिना था ऐसे मे सूर्यास्त जल्दी हो जाता है. इसलिये हम करीब सूर्यास्त के दर्मियान हि जल्दी जल्दी गांव कि तरफ रवाना हुये. जहा जंगल समाप्त होता है उसके बाद किसानो के खेत चालू होते है. लेकिन खेत और जंगल के बीच से एक छोटी नदी (ग्रामीण भाषा मे हम उसे नाला भी बोलते है.) जाती है. उस समय नाले मे पाणी का बहाव चालू था. जंगल का नाला होने कि वजह से कही पर पाणी कम और कही बेहद ज्यादा होता था. फिर भी आम रास्ता जो आने जाने के काम आता था वाहा पाणी कि गहराई मात्र घुटनो तक थी. चलते चलते हम उस नाले के किनारे तक आ गये. लेकिन हे ईश्वर जिस रास्ते से हम लोग आये थे और अक्सर आते जाते रेहते थे उसका कोई पता हि नही. रस्ता भूलने का तो सवाल हि पैदा नही होता था. क्यूंकी हम लोगो के जहन मे वो रास्ता किसी फोटो कि तरह छपा है, तीन पिढीयों से नियमित आवागमन का रास्ता भूलना कैसे संभव था?
                 लगभग उसी ४-५ कि मी के जंगल के दायरे मे हम लोग पागलो कि तरह भटक रहे थे. लगने लगा था कि जीवन कि आज कि ऐ अंतिम यात्रा हि है. जंगली जानवरो के परीआवास मे हम लोग भटकते जा रहे थे, भटकते जा रहे थे. ना हमारे पास अपने बचाव के लिये कोई लकडी का डंडा था,ना पीने का पाणी. उजाले के नाम पर एक टोर्च. रात के करीब ग्यारह बजने को आये. भय अब अपने चरम पर था ऐसे मे हमारे साथ जो पंडितजी थे उन्होने हम सभी को कहा कि पहाड कि चोटी पर स्थित जो मंदिर है उधर अपनी दिशा करके जोर जोर से प्रभू कि आराधना करो और आज यदी कार्य के दर्मियान हमसे कोई भूल हुई है तो उसके लिये क्षमायाचना करो. हमने वही किया. अब पंडित जी ने कहा कि रास्ता छोडो और मेरे पीछे आओ. उन्होने बिना किसी पर्वा किये उस नाले कि तरफ अपना रुख किया और बिना किसी भय या संकोच से चलते रहे....................अजब आश्चर्य, हम अपने नियमित रास्ते पर पहोच चुके थे!!!................... उंचे स्वर मे हि हम सभी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और सकुशल घर लौट आये. घर पर चिंता का माहौल खुशी मे तब्दील हो गया ऐ बताने कि अलग से कोई आवश्यकता नही है.....!             

घटना क्रमांक-२
            ऐ घटना २००५ कि है. जैसे कि मै एक ग्रामीण क्षेत्र मे रेहता हू तो सरकारी काम,कोलेज,अस्पताल या खरीददारी करने के कामो के लिये हमे अक्सर तहसील के शहर मे जाना पडता है. हमारी तहसील है तुमसर. ऐसे हि किसी काम के सिलसिले मे मै तुमसर अपने बाईक से गया था. तुमसर एक छोटासा ७० हजार कि आबादी वाला टाऊन हि है. लेकिन आबादी और घरो कि घनता कम होने के कारण इसका फैलाव थोडा ज्यादा हि है. होगा करीब २५-३० वर्ग कि.मी. के दायरे मे. इस शहर के भीतर ४ – ५ छोटे छोटे तालाब भी है. पता नही कैसे मै ऐसे हि किसी तालाब के किनारे बने सडक पर निकल गया. उस तालाब के चारो ओर से एक सिमेंट कि पक्की सडक भी बनी है. मै उस तालाब के परीघी क्षेत्र मे दो तीन घंटे लगातार भटक रहा था. मेरे जहन मे भी नही आ रहा था कि किसी को मुख्य सडक पर जाने का रास्ता पुछ लिया जाये. मै किसी भी गली मे घुस पडता लेकिन न जाने कैसे फिर घुम फिर कर उसी तालाब के किनारेपर पहोच जाता? अब तुमसर तो मेरे लिये घर आंगण जैसा हि था. मै हर गली कुचे से भलीभाती परिचित हू, ऐसे मे पता नही क्यू मै इस क्षेत्र मे भटका जा रहा था? कब इस विचित्र सिलसिले का अंत होता,एसेमे मुझे एक मंदिर दिखाई दिया, मनमे एक प्रेरणा जागी और मै मंदिर मे प्रवेश कर गया. मंदिर भगवान हनुमानजी का था. मैने उनके दर्शन किये, प्रणाम किया और बाहर निकल आया. मन के उपर का मानो सब मल धूल गया था. आगे दूर मुझे भारत संचार निगम लिमिटेड का मोबाईल टावर दिखा. मन मे एक प्रेरणा जागी कि सिर्फ उसी दिशा मे आगे बढना है. मै चले चला. वाहा तक पहोच गया,जो मुख्य रोड को लग के था. अपनी गाडी मे पेट्रोल भरवाया और अपने गाव निकल आया. अभी कल शाम को हि मेरा एक मित्र उसी तालाब के बारे मे मेरे जैसे उसके किसी मित्र के साथ घटित घटना का जिक्र कर रहा था. उसीने बताया कि वो तालाब बडा कुख्यात है. उसमे कई आत्महत्याये और हत्या के बाद लाशो का रफादफा किया गया है. ये सब सुनने के बाद मै हिल हि गया था.
             खैर,ऐसी घटनाये रोज रोज तो हमारे साथ घटती नही है लेकिन जब भी घटती है,हमारा निश्चय हि उस बुरी घटना मे हमे फसाने वाली बुरी शक्ती और उससे सकुशल निकालने वाली अच्छी शक्ती के प्रती हमारे मन मे विश्वास जागृत होने को क्या हम अनैसर्गिक या कृत्रिम कह सकते है? आप भी अपने पूर्वाश्रम जीवन पर थोडा चिंतन करे तो आपको भी आपके जीवन मे घटित ऐसी अद्भूत घटनाओं का अवश्य हि आभास होगा. कि कुछ तो था और कुछ तो है!

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